वराह अवतार का विचार :
लोभ को हराना बहुत ही अधिक कार्य है और ये हमारे वृद्धावस्था तक हमारी पीछा नहीं छोड़ता है। और ऐसी लोभ से दुःख के गहरे डूबे हुए सागर में से इस पृथ्वी को निकलने के लिए श्री भगवान जी ने वराह का अवतार लिया था।
कहा जाता है की हर जीव में भगवान का रूप है अर्थात सारा संसार ही भगवान का स्वरुप है। भगवान के ही नाभि से ही कमल के पुष्प की उत्त्पत्ति हुई और उसी कमल से ब्रह्मा जी का आगम। हुआ। उसके बाद ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की और काम को जन्म दिया। काम ने पहले पिता को प्रसन्न किया और प्रथम स्व्याम्भुव मनु और शतरूपा रानी। उसके बाद से प्रजा में वृद्धि होने लगी। उसके बाद उन्होंने भगवान ब्रह्मा को प्रणाम कर अपने योग्य काम पूछा। तब ब्रह्मा जी ने उसको उसके गुणवक्ता को देखते हुए उसको संतान में वृद्धि करने और धर्म से पृथ्वी का पालन करे और यज्ञ द्वारा श्री भगवान की आराधना करो।
मनु ने ब्रह्मा का आज्ञा मानते हुए उनसे अपने और अपने प्रजा के रहने के लिए स्थान के लिए पूछा तो ब्रह्मा जी ने देखा की पृथ्वी तो पूरी तरह से जल से भरी हुई है और ये देख ब्रम्ह्मा जी चिन्तन में पड़ जाते है और बोलते ही हे श्री हरि आप ही मेरी ये चिंता दूर करिये। जैसे ब्रह्मा ने ऐसा कहा वैसे ही उनके नासाछिद्र से अंगूठे के बराबर का एक वराह शिशु निकला और देखते ही देखते वह किसी हाथी के भांति के विशाल हो गया। यह देख मनु समेत ब्रह्मा जी और अन्य मुनि जन भी सोचने लगे की ये कैसा प्राणी है। यह अवश्य ही यज्ञ मूर्ति भगवान हम लोगों को मोहित करने की कोशिश कर रहे है। तभी भगवान पर्वत के भांति आकर लेकर गरजने लगे। अपनी इस गर्जना से भगवान जी ने ब्रह्मा और अन्य को हर्ष से परिपूर्ण कर लिया। दुःख दूर कर देने वाली उस माया रुपी गर्जना और वराह जी के घुरघुराहट को सुनकर सभी लोग उनकी स्तुति करने लगे। अपनी स्तुति होते देख वह अत्यंत प्रसन्न हुए और सभी के हित के लिए के बार फिर गर्जन करते हुए जल में प्रवेश किया। जिस समय उन्होंने जल में प्रवेश किया उस समय मानो समुद्र का पेट फट सा गया और बदलो की भरी गड़गड़ाहट हुई ऐसा प्रतीत हुआ की मानो समुद्र रक्षा के लिए पुकार रहे।
भगवान यज्ञ मूर्ति अपने बाण से समान नुकीले पैर जल को चीरते हुए गहरे जल के उस पार पहुंच गए और वहां पहुँच कर भगवान ने सभी जीवों हेतु रहने का स्थान देखा। उसके स्वयं श्री हरि ने जल में पूरी तरह से डूबी धरती को रसताल से ऊपर लेकर आये।
हिरण्यक्ष और वराह भगवान के बीच युद्ध :
जब वराह भगवान पृथ्वी को समुद्र से ऊपर की ओर ला रहे थे तभी हिरण्याक्ष ने उनपर वार कर दिया और उनको अपशब्द कहने लगा भगवान वराह को यह पसंद नहीं आया और वो भी क्रोधित हो गए फिर काफी लम्बे समय तक उन दोनों एक युद्ध चला और आखिरी में देवताओं के आग्रह पर उन्होंने अपना चक्र छोड़ दिया जिससे हिरण्याक्ष के सारे शरीर काट गए और उसका नेत्र बाहर आ गया।
और निष्प्राण होकर वो किसी विशाल वृक्ष की तरह पृथ्वी पर जा गिरा। उसके बाद भगवान वराह जैसे ही पृथ्वी को लेकर ऊपर पहुंचे तो रक्त से भरे उनके शरीर को देख और उनके दांतों के नोक पर पृथ्वी के को धारण देखा तो सभी को यकीन हो गया की ये श्री हरी जी ही है। और सभी ने उनका हाथ जोड़ कर स्तुति करने लगे। प्रेम से भरे उस स्तुति को सुन भगवान वराह ने पृथ्वी को जल को स्तंभित कर वही रख दिया और पृथ्वी में अपनी शक्ति अनुसार उसमे भी शक्ति दे दिए।
उसके बाद वो वहां से अन्तध्यार्न हो गए। वराह भगवान ने पृथ्वी को निकाला जरूर जल में से लेकिन अपने पास नहीं रखा और उस पृथ्वी को मनु यानी मनुष्यों को दे दिया और कहा की जो कुछ अपने हाथों में हों उसको दूसरों को दे देना ही संतोष है। और उन्होंने मनु को कहा की पृथ्वी की धर्म से पालन करना और फिर बद्रीनाथ के रूप में लीन हो गए। मनुष्यों को समाज का भला करना और धर्म करना भगवान वराह ने ही सिखाया है। इसीलिए कहते है की लोभ को नष्ट करने के लिए श्री वराह भगवान जी का शरण लेनी चाहिए क्योंकि जब तक मन से लोभ के रूप में विराजमान हिरण्याक्ष नहीं हटेगा तब तक जीवन में हमेशा अशांति बानी रहेगी।
शेष भाग वराह भगवान का अवतार।। भागवत कथा दूसरा दिन
।। जय श्री कृष्णा।।