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 भगवान राधारमण और भक्त श्री गोपाल  भट्ट की कथा

भगवान राधारमण और भक्त श्री गोपाल भट्ट की कथा

आज हम वेदांतरस के माध्यम से देखेंगे की कैसे भगवान श्री गोविन्द ने अपने भक्त श्री गोपाल  भट्ट पर कृपा बरसाई।   

कहते है न की अगर कोई भक्त भगवान की सच्चे मन से भक्ति करता है तो भगवान उसपर ज़रूर अपनी कृपा बरसते है। ऐसी ही एक कहानी हमारे शास्त्रों में कही गयी है जो इस प्रकार है।

 एक बार पूर्व आचार्य श्री गोपाल भट्टजी ने बहुत बड़ा महोत्सव मनाया जिससे उन पर एक बनिये का कुछ कर्जा हो गया। धन के अभाव में आचार्य यथा समय कर्ज नहीं चुका सके। जब आचार्य बहुत दिनों तक नहीं आए, बनिये ने निश्चय किया कि कल प्रातःकाल आचार्य के घर जाकर, जैसे-तैसे रुपया वसूल किया जाए।

        भगवान श्री राधा रमण जी ने विचार किया कि प्रातःकाल तो श्री भट्ट मेरी सेवा-पूजा, राग-भोगादि के आनन्द में मग्न रहते हैं। यदि वह बनिया उस समय आया तो मेरे भक्त के आनन्द में बाधा आएगी। अतः भगवान स्वयं श्री गोपाल भट्ट जी का रूप धारण कर बनिये के घर जाकर उसके रुपयों का भुगतान कर आए। तभी संयोग से उस दिन श्री गोपाल भट्टजी जी को किसी भक्त ने कुछ धनराशि भेंट में दी। तो श्री गोपाल भट्टजी ने सोचा की क्यों न उस बनिये की क़र्ज़ को चूका दिया जाय। 

 दूसरे दिन जब श्री भट्ट जी उस बनिये के घर रूपये देने गए  तो उस बनिये ने कहा, महाराज ! आप क्या कर रहे हैं ? रुपया तो आप कल प्रातःकाल ही चुकता कर गए थे। श्री गोपाल भट्ट समझ गए कि ये सब उनके श्री राधा रमण जी की ही लीला है। भगवान की कृपा के बारे में सोच कर श्री गोपाल भट्ट जी  के आँखों से आँसू नहीं रुक रहे थे, गोपाल भट्ट जी बोले कि- "हे भगवान गोविन्द जी , मुझे तो कभी 'आपके ' दर्शन  का सौभाग्य नहीं प्राप्त हुआ, लेकिन मुझे तो इस बात की प्रसन्नता है कि आपकी नज़र मुझपर है। 

मैंने कभी 'तुम्हें' सुना भी नहीं, पर मैं ये सोच कर रोमांचित हो उठता हूँ कि तुम मेरे वाणी और मौन दोनों स्वरों को सुनते हो। मैं तुम्हें जानता भी नहीं हूँ, पर मैं गर्वित हो उठता हूँ सोचकर कि, 'तुम' तो मुझे जानते हो। न देखा, न सुना, न जाना, फिर भी मैं इस संसार में केवल और केवल तुम्हीं से प्रेम करता हूँ। तुम ही मेरा वास्तविक प्रेम हो।

तुम मेरे प्रति इस प्रेम से भी बढ़कर कोई भाव रखते होगे। मुझे तुम सुख दो या दुख, फर्क नहीं पड़ता, मैं यही सोच कर आनन्दित हो जाता हूँ कि, 'तुम' मुझे दे रहे हो। मैं नहीं जानता मुझमें इतनी सामर्थ्य, योग्यता है या नहीं कि मैं तुम्हारा बन सकूँ' तुममें स्थित हो सकूँ पर ये सोचकर मैं समाधिस्थ हो जाता हूँ कि 'तुम तो मेरे ही हो', नित्य मुझमें स्थित हो।"

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